बुधवार, 28 जुलाई 2010

आज मेरा ही हाथ वहा तक नहीं पहुचता ...

बरसों पहले चंद पंक्तियाँ कही पढ़ी थी ... उस वक़्त इतनी छोटी थी कि इन पंक्तियों का अर्थ नहीं समझ पाई थी .. किन्तु फिर भी पंक्तियाँ इतनी अच्छी लगी थी कि सीधे मन में कहीं गहरे तक पैठ गयी थी .. आज यू ही ये पंक्तियाँ याद आ गयी तो सोचा आप सभी को भी पढवा दूँ .हालाँकि मुझे ये पता नहीं है कि ये किन्होने लिखी है .. शायद अम्रता प्रीतम जी की हो .. आप में से किसी को पता हो तो जरूर बताये..



तेरे मेरे रिश्ते को मैंने रखा इतना उपर 
अपनों से , परायों से ...
रिश्तों से ,नातों से ..
रीतों से रिवाजों से ...
रस्मों से ,कसमों से ...
सच से , झूठ से ...
वर्तमान से , भूत से ...
आशा से , निराशा से ...
सुख से , दुःख से 
जीवन से , म्रत्यु से
हर चीज़ से इतना ऊपर 
कि आज मेरा ही हाथ वहा तक नहीं पहुचता ...