
चारों ओर है वीरानगी
पाशविकता और बेचारगी
मचा हुआ है हाहाकार
नारकीयता और यह नरसंहार
आया है ये कैसा पतझड़
सामाजिक सौहार्दता कही खो गई
मानवता कहा सो गई ?
संस्कार हो गए सारे गुम
आदर्शता पड़ने लगी कम
आया है ये कैसा पतझड़
दिखावे का खेल अनूठा
आवरण आधुनिक और झूठा
संस्कृति होने लगी मृतपाय
पैसा बन गया सभी का अभिप्राय
आया है ये कैसा पतझड़
यदि सौहार्द रूपी बसंत का हो आगमन
सुखी हो जाए सबके मन
हट जाए वीराने बादल
हरियाला हो जाए आँचल