बुधवार, 19 नवंबर 2008

आया है ये कैसा पतझड़

आया है ये कैसा पतझड़
चारों ओर है वीरानगी
पाशविकता और बेचारगी
मचा हुआ है हाहाकार
नारकीयता और यह नरसंहार
आया है ये कैसा पतझड़
सामाजिक सौहार्दता कही खो गई
मानवता कहा सो गई ?
संस्कार हो गए सारे गुम
आदर्शता पड़ने लगी कम
आया है ये कैसा पतझड़
दिखावे का खेल अनूठा
आवरण आधुनिक और झूठा
संस्कृति होने लगी मृतपाय
पैसा बन गया सभी का अभिप्राय
आया है ये कैसा पतझड़
यदि सौहार्द रूपी बसंत का हो आगमन
सुखी हो जाए सबके मन
हट जाए वीराने बादल
हरियाला हो जाए आँचल