
कभी तो रिश्तों में ढूंढे से भी न मिले अपनापन
तो कहीं सहज ही मिल जाते है मन
कभी परछाई भी उजाले की साथी बनकर अँधेरे में छुप जाये
तो कहीं वजूद किसी और का खुद में महसूस किया जाये
कभी जीवन में अपना पराया समझ में न आये
तो कहीं जन्म जन्म का बंधन सांसों से बंध जाएँ
क्योँ ऐसा होता है कोई तो बतलाये ?
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कभी तो चार पलों में जी उठते सारा जीवन
तो कहीं लगते सारे अजनबी से क्षण
कहीं फैला है चाहत का विस्तृत आकाश
तो कहीं रिश्तों में व्याप्त सूनापन और प्यास
कभी पुराने लम्हे फिर से नयें अहसासों में ढल जाये
तो कही रिश्तों के नए अर्थ नए रूप में बदल जाये
क्यों ऐसा होता है कोई तो बतलाये ?
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कभी तो गंतव्य तक पहुच कर भी अर्थहीन रहते शब्द
तो कहीं बिन संचार के ही तरंगित हो उठते शब्द
कभी तो समझा समझा कर हार मान ली जाये ,
तो कही बिन कहे सुने ही सब समझ में आ जाये
कभी तो साथ साथ रह कर भी बने रहे पराये
तो कहीं लाख दूरियों के बीच भी मनो का मेल हो जाये ।
क्यों ऐसा होता है कोई तो बतलाये ?
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कभी तो कहने सुनने को कुछ रहे नहीं शेष
तो कहीं कहने सुनने के लिए वक़्त कम पढ़ जाये
कहीं लगें मन का हर कोना सूना सूना
तो कहीं यादों के दरख़्त से टूटे लम्हे मन के आँगन में खिल जाये
कभी खुद की पहचान भी बन जाये अपरिचित
तो कहीं संपूर्ण अस्तित्व भी एक दुसरे में समाये
क्यों ऐसा होता है कोई तो बतलाये ?
कोई तो बतलाये ?
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