सोमवार, 21 जून 2010

दुनिया का दस्तूर (अंतिम कड़ी )

          पंकज का मुह एकदम रुआसा हो गया . मेरे मन में कशमकश सी होने लगी कि मैं पंकज को हज़ार रुपये दे दू , या न दू ? क्योंकि उस वक़्त मेरी भी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी , और वे हज़ार रुपये मेरे लिए बहुत मायने रखते थे , और दूसरी बात यह कि पंकज ने मुझ से तो पैसे मांगे नहीं थे , तीसरी बात यह कि पति से बिना पूछे पैसे देने में मुझे हिचक सी हो रही थी. मैंने अपनी इस इच्क्षा को वहा मौजूद एक मित्र को बताया तो वह बोलने लगी कि नौकरी छूटने के पश्चात पंकज से दोबारा मुलाकात होगी नहीं , ये तो तय ही है ..फिर पैसे कैसे वापस मिलेंगे ? इसीलिए तुम पैसे मत दो , और वह तुमसे थोड़े ही मांग रहा है , जो तुम इतना सोच रही हो ? लेकिन अंततः जीत मेरे मन की हुई , मैंने उसे हज़ार रुपये दे दिए , जो उसने बड़ी ही मुश्किल से लिए . उसके चेहरे से साफ दिख रहा था कि उसे मुझ से यू रुपये लेते हुए कितना कष्ट हो रहा है , वह मुझ से सिर्फ इतना ही कह पाया कि आपका एड्रेस दे दीजिये , पैसे का इंतजाम होते ही मैं लौटाने आऊंगा . मुझे उसको पैसे देते हुए अन्दर से जो सच्ची ख़ुशी और सुकून महसूस हुआ, उसे मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकती . मुझे पूरा यकीं था कि वह ज़रूर मुझे पैसे लोटायेगा.

                 जिंदगी फिर अपनी रफ़्तार से चलने लगी .मैं पैसो वाली बात भूल    भी गयी थी कि एक दिन शाम को पंकज मेरा घर ढूँढ़ते हुए आया और जैसी कि मुझे उम्मीद थी, मन में पक्का विश्वास था उसके अनुसार ही  वह मेरे पैसे लौटाने आया था .. उसने मेरे पैर छू कर ,भीगी आँखों से मुझे धन्यवाद अदा किया और कहा कि वे पैसे उसके लिए बहुत ज्यादा जरूरी थे ,क्योंकि उसे फीस भरनी थी .

  जाते वक़्त उसने  मुझे बताया कि वह आगे की पढाई के लिए पुणे जा रहा है , उसके पिताजी ने खेती गिरवी रख कर उसकी आगे की पढाई का इंतजाम किया है .  उसने कहा कि "बस अब  अच्छे से पढ़ लिख कर कुछ बन जाऊ , अपनी खेती वापस छुडवा सकू, और माँ पिताजी को,भाई -बहन को  कुछ सुख दे सकू , यही मेरा उद्देश्य है और सपना भी "....आगे वह नहीं बोल पाया था लेकिन मैं पढ़ सकती थी कि एक सपना और उसकी आँखों में तैर रहा था और वह था नंदिनी के साथ जीवन के सफ़र में आगे बढ़ने का सपना..लेकिन कभी कभी इंसान की जिम्मेदारिया, मजबूरिया और हालात ही ऐसे हो जाते है , कि कुछ सपनों की कलियों को कुचल देना पड़ता है .. शायद यही ज़िन्दगी  है ....मैंने उसे शुभकामनाये देते हुए विदा किया .

             इसके बाद कभी उससे मेरा मिलना नहीं हुआ . जाने क्यों जिन्दगी के सफ़र में चलते चलते ऐसे कुछ लोग मिलते है , जो बड़े आत्मीय से लगते है पर  चूँकि उनसे कोई हमारा कोई सम्बन्ध नहीं रहता इसी वज़ह से कोई संपर्क भी नहीं रह पाता और वही दूसरी और कहने को हमारे सम्बन्धी , सहकर्मी ,नाते रिश्तेदारों से हम संपर्क तो जरूर रखते है ,पर जरूरी नहीं कि वे सम्बन्ध आत्मीय हो .. एक दो सालों तक मैं अक्सर पंकज के बारे में सोचती रहती थी कि उसकी पढाई ख़त्म हो गयी होगी , नौकरी मिली कि नहीं , नंदिनी से उसकी शादी हो गयी हगी .. इत्यादि . फिर वक़्त के साथ साथ उसकी स्मृति भी धीरे धीरे मन के किसी कोने में दुबक गयी और मैं   ज़िदगी की राहों में आगे बढ़ने  हुए नए कार्यक्षेत्र और नयी नयी जिम्मेदारियों में व्यस्त हो गयी  और आज इतने सालों बाद अचानक उसे देख कर और यह जानकर बड़ा सुखद आश्चर्य हुआ  कि पंकज आज केंद्रीय कार्यालय में एक अच्छी नौकरी पर है ..
      
             उसने मुझ से निवेदन किया कि मैं उसके केबिन को देखने चलू , सब से विदा लेकर मैं उसके साथ उसके  केबिन में गयी . वहा पहुच कर मैंने उसके माँ- पिताजी सभी की कुशलता पूछी , उसने बताया कि पुणे में रहते हुए उसने अपनी पढाई पूरी की और साथ में छोटी मोटी नौकरी भी करता रहा , इसी बीच उसके पिताजी चल बसे और गिरवी रखी जमीन भी डूब गयी , माँ ने सिलाई कर के और छोटे मोटे काम करके किसी तरह घर चलाया , छोटे भाई बहन की पढाई के लिए मामा ने थोड़ी मदद की और पंकज भी वापस घर आ कर लगातार प्रतियोगी परीक्षा की तैयारियों में जुटा रहा और जो कोई भी नौकरी मिली करता रहा . ३-४ बार असफल होने के बाद अंततः उसका चयन हो गया और उसे २ साल पहले नागपुर में यह नौकरी मिल गयी . उसने बताया कि अब माँ , छोटे भाई बहन और मैं सब मिलकर यही क्वाटर में रहते है, करीब डेढ़ साल पहले  शादी भी हो चुकी है २  महीने की एक बिटिया  भी है ..

              यह सब सुनते ही मुझे एकदम से नंदिनी का ख्याल आया ..मैं समझ गयी कि पंकज की शादी किसी दूसरी ही लड़की  से हुई होगी, नहीं तो वह जरूर यह कहता कि "डेढ़ साल पहले मेरी  और नंदिनी की शादी हो चुकी है "..  मुझे कुछ पूछना अच्छा नही लग रहा था कि क्या कारण हुआ कि तुम दोनों की शादी नहीं हो पाई , लेकिन मन में जिज्ञासा जरूर थी .. इतने में वह खुद ही बोला .." दीदी , नंदिनी शायद मेरी किस्मत में  ही नहीं थी ,   उसके मम्मी पापा ने  उसकी शादी कही और कर दी , बेचारे और करते भी क्या , उन पर भी तो अपने बड़े -बुजुर्गो और रिश्तेदारों का दवाब था ,मैं जब अपने करियर के लिए संघर्ष कर रहा था ,मैं क्या कह सकता था ? यही हालत नंदिनी की भी थी  . मेरे ही एक दोस्त की दूर की रिश्तेदारी में उसकी शादी हुई है , इसीलिए उसके हाल-चाल पता चलते रहते है . शादी के वक़्त उसके पति की कपडे की दूकान थी , जो उसने शराब और सट्टे में पूरी बर्बाद कर दी उसकी भी एक बेटी और एक बेटा है .वह एक स्कूल में टीचर है , बेचारी अपने पति की गलत आदतों को सहते हुये  किसी तरह अपना और अपने बच्चों का गुजारा कर रही है ."....यह कहते हुए उसके चेहरे पर दर्द की लकीरे उभर आई थी . वह बोला , खैर , किस्मत के आगे हम कुछ नहीं कर सकते . लेकिन वह भी अपनी जिन्दगी में सुखी रहती तो मुझे कोई शिकायत न होती .."

            यह सब सुनकर मैं भला क्या कहती .. २-४ औपचारिक बातो के बाद  मैंने उससे विदा मांगी . वापस आते वक़्त मैं पंकज और नंदिनी के ही बारे में सोच रही थी , पंकज के कैरियर को लेकर जितनी ख़ुशी मिली थी , उतना ही दुःख नंदिनी के बारे में जान कर हुआ , वाकई में यदि जीवनसाथी   किसी बुरी आदत का शिकार है , तो जिंदगी नरक ही बन जाती है . बार बार मेरी आँखों के आगे नंदिनी का मासूम और प्यारा सा चेहरा डोल रहा था . मन में यह विचार आ रहा था कि क्यों किस्मत ने या यू कहे कि वक़्त ने दोनों को अलग अलग राहों पर चलने को मजबूर कर दिया . जैसा मजबूत और प्यार भरा रिश्ता उन दोनों के बीच था , क्या वैसा रिश्ता उनका अपने अपने जीवनसाथियों से कभी बन पायेगा ? पर शायद यही  दुनिया का दस्तूर है ..

पंकज की कहानी सुन कर मुझे बरबस ही वे चन्द पंक्तिया याद आ गयी, जो मैंने कही पढ़ी थी ...

" जिस पल से तुझ से बिछड़ा , खुद से भी कभी मिला ही नहीं ...
कहने को तो सब कुछ है मेरे पास एक तेरे सिवा , जिन्दगी से कोई और गिला भी नहीं .."