शुक्रवार, 7 मई 2010

क्यों ऐसा होता है , कोई तो बतलाये ?



कभी तो रिश्तों में ढूंढे से भी न मिले अपनापन

तो कहीं सहज ही मिल जाते है मन

कभी परछाई भी उजाले की साथी बनकर अँधेरे में छुप जाये

तो कहीं वजूद किसी और का खुद में महसूस किया जाये

कभी जीवन में अपना पराया समझ में न आये

तो कहीं जन्म जन्म का बंधन सांसों से बंध जाएँ

क्योँ ऐसा होता है कोई तो बतलाये ?
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कभी तो चार पलों में जी उठते सारा जीवन

तो कहीं लगते सारे अजनबी से क्षण

कहीं फैला है चाहत का विस्तृत आकाश

तो कहीं रिश्तों में व्याप्त सूनापन और प्यास

कभी पुराने लम्हे फिर से नयें अहसासों में ढल जाये

तो कही रिश्तों के नए अर्थ नए रूप में बदल जाये

क्यों ऐसा होता है कोई तो बतलाये ?

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कभी तो गंतव्य तक पहुच कर भी अर्थहीन रहते शब्द

तो कहीं बिन संचार के ही तरंगित हो उठते शब्द

कभी तो समझा समझा कर हार मान ली जाये ,

तो कही बिन कहे सुने ही सब समझ में आ जाये

कभी तो साथ साथ रह कर भी बने रहे पराये

तो कहीं लाख दूरियों के बीच भी मनो का मेल हो जाये ।

क्यों ऐसा होता है कोई तो बतलाये ?

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कभी तो कहने सुनने को कुछ रहे नहीं शेष

तो कहीं कहने सुनने के लिए वक़्त कम पढ़ जाये

कहीं लगें मन का हर कोना सूना सूना

तो कहीं यादों के दरख़्त से टूटे लम्हे मन के आँगन में खिल जाये

कभी खुद की पहचान भी बन जाये अपरिचित

तो कहीं संपूर्ण अस्तित्व भी एक दुसरे में समाये

क्यों ऐसा होता है कोई तो बतलाये ?
कोई तो बतलाये ?


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23 टिप्‍पणियां:

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति संवेदनशील हृदयस्पर्शी मन के भावों को बहुत गहराई से लिखा है

बेनामी ने कहा…

"क्यों ऐसा होता है , कोई तो बतलाये ?"
शब्दों और भावों का शानदार संयोजन - बधाई

Aruna Kapoor ने कहा…

यही तो जीवन है.... कभी अमावस की काली अंधेरी रात हिस्से में आती है, तो कभी पूर्णिमा का चांद सामने होता है!...बहुत सुंदर!

निर्झर'नीर ने कहा…

शायद कोई नहीं बता सकता ..कम स कम मैं तो बिलकुल नहीं हाँ मैंने भी हर इन्सान की तरह आपके इन भावो को जिया है और यहीं प्रश्न खुद से किया है ...आखिर क्यूँ ?
लेकिन कोई जवाब नहीं ..आपको पता चले तो जरूर बताना .
कश-म-कश ,मर्म ,ख्वाहिशें बेजारी और तड़फ हर भाव को आपने एक कविता में ऐसे समेट दिया है जैसे सागर सारी नदियों को अपने आप में समा लेता है
आप जैसी महान कवियत्री ने मेरे बिखरे हुए शब्दों को सराहा ..नि:संदेह ये मेरे लिए फक्र की बात है

शारदा अरोरा ने कहा…

मन में बहुत सवाल उठते हैं , मन निगोड़ा लेट-गो करता ही नहीं...खेल भी तो सारा मन का ही है , जानती हैं न परछाई देखने के लिए भी थोडा सा उजाला चाहिए , अंधेरी रात में कौन किसका साथी ? चिराग अपने दिल का ही रौशन करना होगा ...आपने इस उहापोह को शब्द दे दिए हैं .
पता नहीं क्यों आपको टिप्पणी देने में परेशानी हुई ..मेरे दुसरे ब्लोग्स भी शायद आपको अच्छे लगें ..लिनक्स दे रही हूँ ...
www.shardaarora.blogspot.com
www.sharda-arorageetgazal.blogspot.com

शोभना चौरे ने कहा…

यही क्षण तो जीवन को गति देते है \
बहुत ही सुन्दरता से मानवी य भावो का चित्रण किया है \सुन्दर रचना |

Unknown ने कहा…

मानवीय रिश्तों एवं भावों की मर्मस्पर्शी अभिव्यंजना आपकी कविता में हुई है........सत्य है जीवन में रस है आनन्द है तो जीवन है नहीं तो प्रत्येक क्षण बोझिल है.......श्रेष्ठ सृजन अनवरत रखे.......आप अच्छा लिखती है मेरे ब्लॉग से जुङेगी तो खुशी होगी............पुनश्च बधाई।

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ ने कहा…

Kamaal hai! Sawaal bade poochhtee hain aap!
Ha ha ha...
Utkrisht rachna!
Darasal ye aapko bhi pata hai ke in sawaalo ka koi jawaab nahin...

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

आपके ब्लॉग पर पहली बार आना हुआ.....रास्ता आपने ही सुझाया....उसके लिए शुक्रिया


सच है की रिश्ते अब अपनापन बना लेते हैं और कुछ रिश्ते अपने हो कर भी अपने नहीं लगते ....आपकी कविता बहुत कुछ कहती है रिश्तों पर....अच्छी अभिव्यक्ति

कृपया यहाँ भी देखें ...
http://geet7553.blogspot.com/

Parul kanani ने कहा…

bahut hi acchi rachna!

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

कभी तो रिश्तों में ढूंढे से भी न मिले अपनापन

तो कहीं सहज ही मिल जाते है मन

स्वाति जी, कविता की शुरुआत ही बहुत सच्ची और निर्दोष सी है. बधाई.

अरुणेश मिश्र ने कहा…

अति प्रशंसनीय रचना स्वाँति जी ।

हमने तुम्हे छुआ ।
कुछ भी नही हुआ ।

हमने तुम्हे छुआ ।
अनिर्वचनीय दुआ ।

कडुवासच ने कहा…

...बेहतरीन ... प्रसंशनीय !!

Harshvardhan ने कहा…

bahut sundar

संजय भास्‍कर ने कहा…

अच्छी लगी आपकी कवितायें - सुंदर, सटीक और सधी हुई।

संजय भास्‍कर ने कहा…

अति प्रशंसनीय रचना स्वाँति जी
first to aap bahut hi sunder likhti hai..
sacond mera nanihal chidwara hai....
aap to mere nanihal ke paas ki hai..
special thanks swati ji...

Rohit Singh ने कहा…

अगर यही पता चल जाए तो जीवन सरल न हो जाए
सही मैं अपना कब पराया बन जाता है पराया कब अपना पता ही नहीं चलता

एक बेहद साधारण पाठक ने कहा…

नि: शब्द ... आपको पहली बार पढ़ा ...बहुत प्रभावशाली रचना...

पूरे उत्तर तो नहीं दे सकता पर मन की संतुष्टि के लिए ये पढ़ें
http://my2010ideas.blogspot.com/2010/04/blog-post_04.html

प्रिया ने कहा…

isi kashmkash mein waqt guzar jata hai

Prem Farukhabadi ने कहा…

bahut sundar rachna badhai!!

लता 'हया' ने कहा…

शुक्रिया .
कविता ,मुलाक़ात एक संयोग ? मासूम की उलझन ,....सब अपनी जगह .. लेकिन आपको बेटा होने की तहे दिल से मुबारकबाद देना चाहती हूँ .

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

कौन समझाए...!
मृत्यु लोक में देव भी आए उलझ-उलझ रह जाए.
कौन समझाए...!
...सुंदर अभिव्यक्ति.

इस्मत ज़ैदी ने कहा…

कभी तो रिश्तों में ढूंढे से भी न मिले अपनापन

तो कहीं सहज ही मिल जाते है मन

अति सुंदर! स्वाति जी ,
पहली बार आप को पढ़ रही हूं पर मन को छू गई ये कविता