बुधवार, 19 नवंबर 2008

आया है ये कैसा पतझड़

आया है ये कैसा पतझड़
चारों ओर है वीरानगी
पाशविकता और बेचारगी
मचा हुआ है हाहाकार
नारकीयता और यह नरसंहार
आया है ये कैसा पतझड़
सामाजिक सौहार्दता कही खो गई
मानवता कहा सो गई ?
संस्कार हो गए सारे गुम
आदर्शता पड़ने लगी कम
आया है ये कैसा पतझड़
दिखावे का खेल अनूठा
आवरण आधुनिक और झूठा
संस्कृति होने लगी मृतपाय
पैसा बन गया सभी का अभिप्राय
आया है ये कैसा पतझड़
यदि सौहार्द रूपी बसंत का हो आगमन
सुखी हो जाए सबके मन
हट जाए वीराने बादल
हरियाला हो जाए आँचल

10 टिप्‍पणियां:

mehek ने कहा…

bahut marmik rachana sundar

रंजू भाटिया ने कहा…

दिखावे का खेल अनूठा
आवरण आधुनिक और झूठा
संस्कृति होने लगी मृतपाय
पैसा बन गया सभी का अभिप्राय
आया है ये कैसा पतझड़

बहुत सही और सुंदर कहा आपने

MANVINDER BHIMBER ने कहा…

पैसा बन गया सभी का अभिप्राय
आया है ये कैसा पतझड़
यदि सौहार्द रूपी बसंत का हो आगमन
सुखी हो जाए सबके मन
हट जाए वीराने बादल
हरियाला हो जाए आँचल
bahut sunder likha hai

नीरज गोस्वामी ने कहा…

जितनी सुंदर कविता उतना ही सुंदर चित्र...बेमिसाल...वाह
नीरज

संगीता पुरी ने कहा…

बहुत सुंदर लिखा है।

Satish Saxena ने कहा…

आपके स्नेह के लिए धन्यवाद, आपका ईमेल न होने के कारण कमेंट्स दे रहा हूँ !

admin ने कहा…

हमारे समाज में यह पतझड जाने कब से छाया हुआ है। एक कटु यथार्थ का सुंदर चित्रण, बधाई।

Ashish Khandelwal ने कहा…

स्वाति जी, बहुत अच्छी अभिव्यक्ति ...

Dev ने कहा…

Achchii Rachna hai...
Badhai...

Poonam Agrawal ने कहा…

Macha hua hai hahakar.......narkiyeta aur yeh nersanhaar....aaya hai kaisa patjhad......
Ek chitra sa khich jata hai najron ke saamne.....
Badhai