आया है ये कैसा पतझड़
चारों ओर है वीरानगी
पाशविकता और बेचारगी
मचा हुआ है हाहाकार
नारकीयता और यह नरसंहार
आया है ये कैसा पतझड़
सामाजिक सौहार्दता कही खो गई
मानवता कहा सो गई ?
संस्कार हो गए सारे गुम
आदर्शता पड़ने लगी कम
आया है ये कैसा पतझड़
दिखावे का खेल अनूठा
आवरण आधुनिक और झूठा
संस्कृति होने लगी मृतपाय
पैसा बन गया सभी का अभिप्राय
आया है ये कैसा पतझड़
यदि सौहार्द रूपी बसंत का हो आगमन
सुखी हो जाए सबके मन
हट जाए वीराने बादल
हरियाला हो जाए आँचल
बुधवार, 19 नवंबर 2008
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10 टिप्पणियां:
bahut marmik rachana sundar
दिखावे का खेल अनूठा
आवरण आधुनिक और झूठा
संस्कृति होने लगी मृतपाय
पैसा बन गया सभी का अभिप्राय
आया है ये कैसा पतझड़
बहुत सही और सुंदर कहा आपने
पैसा बन गया सभी का अभिप्राय
आया है ये कैसा पतझड़
यदि सौहार्द रूपी बसंत का हो आगमन
सुखी हो जाए सबके मन
हट जाए वीराने बादल
हरियाला हो जाए आँचल
bahut sunder likha hai
जितनी सुंदर कविता उतना ही सुंदर चित्र...बेमिसाल...वाह
नीरज
बहुत सुंदर लिखा है।
आपके स्नेह के लिए धन्यवाद, आपका ईमेल न होने के कारण कमेंट्स दे रहा हूँ !
हमारे समाज में यह पतझड जाने कब से छाया हुआ है। एक कटु यथार्थ का सुंदर चित्रण, बधाई।
स्वाति जी, बहुत अच्छी अभिव्यक्ति ...
Achchii Rachna hai...
Badhai...
Macha hua hai hahakar.......narkiyeta aur yeh nersanhaar....aaya hai kaisa patjhad......
Ek chitra sa khich jata hai najron ke saamne.....
Badhai
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